Wednesday, June 30, 2010

130 साल की सेहतमंद बुढिया और 45 लोगों का परिवार

 यह खबर नहीं, आईना है। खासकर उन लोगों के लिए जो सिर्फ पत्नी और बच्चों के साथ ही जीवन में खुशियां ढूंढ़ते हैं। यूं कहें जिनका संयुक्त परिवार से कोई वास्ता नहीं रह गया है। उन्हें यह खबर बताएगी कि परिवार और परिवार का मुखिया होने का मतलब क्या होता है? हम जिस परिवार की बात कर रहे हैं, उसमें मुखिया 130 वर्ष की वृद्धा है। वह न सिर्फ आत्मनिर्भर है, बल्कि अपने अनुभवों से परिवार को संस्कारित, सेहतमंद और समृद्ध भी कर रही है। 45 लोगों का यह परिवार सुख-दुख की घड़ी में दूसरों का मोहताज नहीं होता। वृद्धा डाकू सुल्ताना की लाड़ली भी रही है।

जिस 130 वर्षीय वृद्धा और उसके परिवार की चर्चा यहां हो रही है उसका नाम है कुड़िया देवी। जनवरी 1880 में राजा का ताजपुर निवासी बलदेव सिंह के घर कुड़िया पैदा हुई। उसके पिता छोटे किसान थे, लेकिन वैचारिक तौर पर क्रांतिकारी। मई 1915 में कुड़िया की शादी जिले के ही गांव बसावनपुर निवासी चतरू सिंह से हुई। इसके बाद अच्छे-बुरे दिन भी आए लेकिन, बच्चों के बीच बीतते चले गए।
वर्ष 1995 में पति की मौत के बाद कुड़िया काफी आहत हुई। 80 वर्ष साथ निभाने के बाद जब जीवन साथी अलग हुआ तो उसे भी जीने की इच्छा नहीं रह गई। फिर उसे लगा कि अगर वह बिखर जाएगी तो उसके परिवार को कौन संभालेगा? उसका छोटा बेटा भी अविवाहित था। खुद को मजबूत करते हुए फिर वह अपनी दिनचर्या में लौट आई। अपने छोटे बेटे की शादी की। उसके परिवार के पास 22 बीघा जमीन है, जो आय का मुख्य स्त्रोत है। कुछ सदस्य खेती करते हैं तो कुछ छोटा-मोटा काम और नौकरी भी।
कुड़िया के पांच पुत्र रमेशचन्द्र, बलवीर सिंह, नौबत सिंह, रामकरण सिंह, तिमर सिंह व तीन बेटियां श्यामो, कैलाशो व रामरती अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं। वर्तमान में ये सभी दादा-दादी के श्रेणी में पहुंच गए हैं। कुड़िया के पांचों पुत्र आज भी गांव में एकता की मिसाल बने हुए हैं। परिवार के 45 लोग कुड़िया रूपी धागे में इस प्रकार गुंथे हुए हैं कि जमाने की बुरी नजर उनका बाल भी बांका नहीं कर पाती।
कुड़िया के अनुसार उसे परिवार की महिलाओं के हाथ का खाना पसंद नहीं है, इसलिए वह अपने लिए स्वयं खाना पकाती है। वृद्धा के पोते सुरेन्द्र, राजेन्द्र, जयप्रकाश, कृष्णपाल, सुनील व अनिल ने बताया कि दादी को किसी के हाथ की बनी सब्जी अथवा दाल अच्छी नहीं लगती क्योंकि उन्हें सात्विक भोजन पसंद है।
कुड़िया ने बताया कि कई बार क्षेत्र में अकाल पड़ा है। तब लोगों ने पेड़ों की छाल अथवा प्याज आदि खाकर गुजर बसर की। उन दिनों वह कई-कई दिनों तक भूखी रह जाती थी। इसके बाद कभी प्याज तो कभी पेड़ों की छाल से क्षुधा शांत करना पड़ता था। इसके बाद से ही उसे सात्विक खानपान की आदत हो गई।
वेस्ट यूपी में रॉबिन हुड की छवि रखने वाला सुल्ताना डाकू कुड़िया के पिता बलदेव सिंह का दोस्त था। इसलिए सुल्ताना का उसके घर आना-जाना था। कुड़िया बताती है कि वह सुल्ताना को ताऊ कहकर पुकारती थी। शादी में सुल्ताना ने उसे एक गाय व बछड़ा बतौर दान दिया था। शादी के बाद भी सुल्ताना उसकी ससुराल बसावनपुर आया था और भोजन करने के बाद चला गया था।

Monday, June 28, 2010

यह आग कब बुझेगी

यह आग कब बुझेगी 

ये जिन्दगी भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है आप और हम न जाने क्यों सब कुछ देखकर भी अनजान बन जाते है! ऐसा ही एक कानून हिन्दू धर्म में पाया जाता हैं! एक तरफ तो हम  जब जवित मानव को जलता देखते है तो हमारा दिल भर आता है और उसी मानव को जब मरने के बाद जलाते है तो हम दुखी नहीं होते ऐसा क्यों ?सिर्फ जिसके घर मौत का मातम होता है बस वही दुखी होता है या उसके रिश्तेदार !
मैं आप सभी से इसका जबाब मांगता हो क्या आपको जिन्दा होने पर जला दिया जाये तो कैसा रहेगा क्या कोई है जो इसका जबाब दे सके!आप सब लोगो को कोई हक नहीं किसी बेजान मानव को मारने का; जो मर गया उसको और तकलीफ क्यों दे रहे हो! आज ही से तोबा कर लो कल किसने देखा है!
जब मानव मर जाता है तो उसके शारीर को छूने से भी तकलीफ होती है उस शारीर में आत्मा नहीं होती ! आत्मा ही तो है जो उसके जीवत होने पर उसकी सारी तकलीफ को बर्दाश्त कर लेती है ! जब उसके शारीर में वही आत्मा नहीं होती तो उसको छूने से भी तकलीफ होती है !खुद को इस आग से बचाओ नहीं तो जल्द ही तुम्हे इस तकलीफ से गुजरने बाले हो !

Thursday, June 24, 2010

देश के नेता देश के दुश्मन

मैं बात कर रहा हूँ अपने देश के मेम्बर और पार्लिमेंट (M P) की आप शायद नहीं जानते की यह देश की सेवा करने के लिए कितने पैसे लेते है!
एक (m.p) सेलरी 42 हज़ार, ऑफिस के खर्च के नाम पर 14 हज़ार, रेल का टिकेट फ्री, और प्लेन दिल्ली का टिकेट फ्री, M . P हॉस्टल फ्री, इलेक्ट्रिसिटी का बिल 50 ,000 उनिट्स फ्री, और तो और लोकल काल्स 170000 काल्स फ्री अगर इन सब को जोड़ दिया जाये तो खर्चा बनता है -32 लाख और पांच साल का खर्चा 16000000 (one crores sixty lakhs )! अब बात आती है 543 MP's जो की पांच साल में  85500000000 (855 crores) खर्च आता है सिर्फ उनको पालने का और खर्चे तो वह अपनी दूसरी काली कमाई से कर लेते हैं! अब आप अपना दिमाग लगाओ कि एक अरब से ज्यादा की आबादी बाले इस देश में एक आम आदमी हर महीने सिर्फ MP's को अपनी मेहनत की पूंजी में से कितने रुपये देता हैं! इसलिए सरकार हम पे तरह-तरह के टेक्स लगाती है! जिस सरकार को हम पालते है उसे कोई हक नहीं हमारी रोटी छिनने का! मैं किसी सरकार का विरुद नहीं कर रहा हूँ क्युकि हमारे देश में कोई भी ऐसी सरकार है ही  नहीं! जो भारत को एक नया चेहरा दे सके! दोस्तों आगे निकलो और देश की सेवा में अपना कुछ वक़्त दो..................... 
आपके सुझाबो का इंतजार रहेगा !

Sunday, June 20, 2010

गुम होता माँ का आंचल

आज नारी के लिए कई संस्थान बन चुके है जो हर कदम पर उनका साथ देने के लिए साथ खड़े रहते है.
लेकिन क्या किसी ने सोचा है कि हमारे बढ़ते कदम हमे कहाँ ले जा रहे है. भारत की जीवन रचना बहुत तेज़ी से बदल ती जा रही है, इसका सबसे ज्यादा असर लड़कियो पर हो रहा है. पश्चिम देशो की सभ्यता पाने के लिए लड़किया क्या कुछ नही कररही हैं, यह किसे से छुपा हुआ नही है. आज लड़कियो के सर पर दुपट्टा नाम की कोई भी चीज़ पाई नही जाती है. लेकिन शहर से दूर गांवों में यह सब कुछ देखने को मिल सकता है. मेरा कहने का मतलब बस यही है कि शहर से यह चलती हवा कही गांवों तक ना पहुच जाए और इसका अंत इतना बुरा ना हो कि बच्चो के लिए फिर कही माँ का आचल गुम ना हो जाए!