Saturday, March 3, 2012

unka andaz

वो कहते है कि तुम मुझे भूल जाऊ 
मैं कहता हूँ कि कोई वजह तो बताओ 
वो कहते है कि मैं तुमसे प्यार नहीं करती 
मैं कहता हूँ कि एक बार नज़र तो मिलाओ 
वो कहते है कि तुम पागल हो 
मैं कहता हूँ कि प्यार से जो चाहो बुलाओ 
वो कहते है कि मेरा पिछा छोड दो 
मैं कहता हो कि मेरे दिल को समझाओ 
वो कहते है कि तुम मर क्यों नहीं जाते 
मैं कहता हो कि अपने दिल से पहले मेरे निशा तो मिटाओ
वो कहते है न कि फिल्म अभी वाकी है मेरे दोस्त 
सुना है कि एंड में सब ठीक हो जाता है ( happy ending)
wait and watch 

Friday, March 2, 2012

manmeet ke naam

आच्छा लगता है 
बड़ा आच्छा लगता है 
तुझ को सोचना 
फिर मेरी आँखों का छलक आना 
आच्छा लगता है 
जब आँख छलक आये 
फिर  धीमे से मुस्कुराना
आच्छा लगता है
छुपकर के तुझे हँसते हुए देखना 
फिर मेरे आते ही तेरा नज़रे चुराना 
अच्छा लगता है 
तुझसे मिलकर बाते करने की कोशिश करना 
फिर भी तेरा कोई जबाब न आना 
अच्छा लगता है 
तेरे आने की अब तो कोई खबर नहीं 
फिर भी तेरा इंतजार करना 
अच्छा लगता है 
तुझको लेकर ख़ाब सजाना 
फिर उनका टूट जाना 
अच्छा लगता है 
बड़ा आच्छा लगता है 
अच्छा लगता है 


Sunday, February 26, 2012


मासूम निगाहे उनकी है
मासूम बाते उनकी है
और कहो क्या बारे में उनके
जैसी आदाये उनकी है
पलकों से जब वो शरमाए
और चाँद छुपाए चिलमन में
ऐसी क़यामत देख के दुनिया
भी दीवानी उनकी है

मासूम निगाहे उनकी है
मासूम बाते उनकी है

Monday, July 19, 2010

महंगाई की नई कहानियां

भीम यूं तो बनवास झेल रहे थे, पर उनकी रेपुटेशन गजब थी। हिडिंबा नामक राक्षसी तक उन के प्रति सदाशयता का भाव रखती थी। सीन कुछ यूं जमा कि भीम और हिडिंबा का विवाह भी हो गया। विवाह के बाद कुछ दिन तो ठीक कटी। पर एक दिन भीम ने रसोई का बिल देखा, तो गश खाकर गिर गए। हिडिंबा के खाने में रोज पांच किलो आटा, पांच किलो चावल, पांच किलो आलू और पांच किलो टमाटर थे -इस महंगाई के जमाने में।

भीम ने बताया कि जितनी रकम में ये सब आता है, उतने में हस्तिनापुर की पूरी सेना की महीने की सैलरी दी जा सकती है।

हिडिंबा ने कहा, आप पति हैं और मुझे भोजन कराने की जिम्मेदारी आपकी ही है। और मैं तो आपसे मेकअप के लिए भी खर्च नहीं मांग रही हूं। सिंपल खाना तो खाऊंगी ही।

फिर भीम ने अपने खाने का बिल देखा, तो डर गए। सिंपल 8 रोटियां खाने में भी बहुत मुद्राएं लग रही थीं। भीम अपनी ही खुराक की रकम महंगाई में नहीं जुटा पा रहे थे। ऊपर से हिडिंबा के खर्च।

भीम डर गए और भाग खडे़ हुए। हिडिंबा ने बरसों इंतजार किया और फिर समझी कि भीम उसे भूल गए हैं। लेकिन सचाई यह थी कि भीम हिडिंबा को भूले नहीं थे, उन्हें खाने के बिल याद आ गए थे।

Tuesday, July 13, 2010

महिलाओं की स्वतंत्रता में भी दबिश बहू तो कमाऊ चाहिए मगर... शर्तें लागू हैं!

दुनिया बदल रही है... लोग तकनीक के घोड़े पर सवार चाँद पर घर बनाने जा पहुँचे और हमने एक देश से दूसरे देश में मित्र बनाने के लिए इंटरनेट जैसे आधुनिक साधन इजाद कर लिए, लेकिन जब बात विवाह जैसी रस्म पर पहुँचती है तो न जाने क्यों हम भारतीयों के सिद्धांत, आधुनिकता और तमाम विकसित होने के दावे खोखले हो जाते हैं।
पराए घर से अनजान परिवेश में कदम रख रही लड़की के लिए आत्मनिर्भर और विकसित मानसिकता की होने के बावजूद आज भी कई बेड़ियाँ मौजूद हैं जो मन से उसे नए रिश्तों को अपनाने नहीं देती और फिर जिंदगीभर के लिए एक गाँठ उसके मन में पड़ जाती है।
छब्बीस वर्षीय रोशनी सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह अपने माता-पिता की तीन संतानों में सबसे बड़ी है। उसकी छोटी बहन और छोटा भाई अभी कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं। रोशनी उत्साह से भरी, जिंदादिल और खुशियाँ बाँटने वाली आज की नवयुवती है।
वह समाज की बदलती सकारात्मक विचारधारा का एक सशक्त उदाहरण है, जहाँ लड़कियों के लिए उनके परिजनों ने खुला आकाश उपलब्ध करवाया है और उन्हें एक स्वस्थ माहौल में बिना किसी पक्षपात के पाला है। इसलिए जब मंगेश का रिश्ता आया तो रोशनी के साथ बाकी परिजन भी प्रसन्न थे।
कारण, मंगेश पढ़ा-लिखा, सुलझा, आधुनिक विचारों वाला लड़का था और एक अच्छी कंपनी में शानदार पद पर कार्यरत भी। उसके पिता बैंककर्मी थे और माँ स्कूल शिक्षिका। रोशनी के परिजनों को यह परिवार सुलझा तथा समझदार लगा। रोशनी को लगा कि उसने अपने माता-पिता के लिए जो सपने देखे हैं, वे अब भी निर्बाध पूरे हो पाएँगे लेकिन शायद यह इतना सहज नहीं था।
शादी के बाद हिल स्टेशन पर घूमते हुए रोशनी ने पहले ही दिन ढेर सारी शॉपिंग कर डाली। उसने पहले से ही इसके लिए पैसे बचाकर रखे थे। वह अपने मायके के अलावा ससुराल में भी सबके लिए कुछ न कुछ खरीदना चाहती थी। उसके मन में इसे लेकर उत्साह था। वह चाहती थी कि नए घर में भी वह पुराने घर की ही तरह सबसे व्यवहार करे।
इसी भावना के साथ जब लौटकर उसने सारे उपहार अपने सास-ससुर को दिखाए तो खुशी से हुलसती रोशनी पर सास के एक ही वाक्य ने पानी फेर दिया-'अरे.. अब अपने मम्मी-पापा के लिए इतना सब लाने की क्या जरूरत थी। अब तुम उनके लिए पराई हो गई हो...वैसे भी बेटी का दिया थोड़े ही न लेते हैं माँ-बाप..' इतना कहकर वे व्यंग्य भरी हँसी हँस दीं और ससुर भी उनके साथ हँसने लगे।
रोशनी हतप्रभ थी। उसने तो सोचा था कि वह यहाँ भी बेटी बनकर दोनों घरों के लिए समान व्यवहार करेगी लेकिन...! उसके बाद से आज तक रोशनी अपने माता-पिता के लिए गिफ्ट लाती है, लेकिन बिना अपने सास-ससुर को बताए। उसके मन में सास-ससुर के लिए माता-पिता वाला भाव आ ही नहीं पाया।
टीना के सास-ससुर तो इससे भी एक कदम आगे निकले। उन्होंने विवाह के अगले ही दिन टीना को बैठाकर उसके बचत खातों, पॉलिसीज़ आदि की जानकारी ले ली। टीना एक कॉलेज में पीआर एक्जीक्यूटिव थी और उसने अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्चा अपने ऊपर ले रखा था। साथ ही मायके में बने नए घर के इंटीरियर का खर्चा भी वह जिद करके वहन कर रही थी।
उसके माता-पिता ने कहा भी कि वह इस खर्चे को रहने दे...वरना उसके ससुराल वाले क्या सोचेंगे। लेकिन टीना ने कहा कि अब जमाना बदल गया है और वे लोग पढ़े-लिखे लोग हैं। ऐसी छोटी बात नहीं करेंगे। बहरहाल, टीना की यह गलतफहमी जल्द ही दूर हो गई।
उसके बचत खातों तथा खर्चे के बारे में जानने के बाद उसके सास-ससुर ने एक स्वर में कह दिया कि उसे अपने भाई-बहन पर होने वाले खर्चों पर रोक लगानी होगी, क्योंकि अब वे उसकी जिम्मेदारी नहीं है। अब उसके पैसों पर उनका हक नहीं रहा। टीना उनकी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गई, क्योंकि वह तो यह समझ रही थी कि स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ने उसके इर्द-गिर्द बुने दायरों से उसे निजात दिला दी है, लेकिन असलियत में तो दायरा वहीं का वहीं था, बस रस्सी थोड़ी लंबी कर दी गई थी।
रोशनी और टीना की कहानी महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके लिए बदलती समाज की विचारधारा के बीच एक नया स्पीडब्रेकर खड़ा कर देती है। जहाँ माता-पिता के घर में तो वे वैचारिक स्वतंत्रता, स्वनिर्णय तथा आत्मसम्मान जैसे गुण खुद में विकसित करती हैं, लेकिन ससुराल जाते ही उन्हें जिंदगी से जुड़ी हर परिभाषा बनावटी लगने लगती है।
बेहद स्वस्थ माहौल में, करियर को ऊँचाइयों पर ले जाती लड़की को तब झटका लगता है जब आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी उसे अर्थ से जुड़े मामले में ससुराल वालों का हर निर्णय मानने पर मजबूर होना पड़ता है। यह नए जमाने में दहेज प्रताड़ना का बदला हुआ तथा और भी विकृत रूप है। पढ़ी-लिखी कमाऊ लड़की के पक्ष में समाज में सकारात्मक माहौल बनने लगा है।
लोग कामकाजी लड़की को सहर्ष बहू बना रहे हैं और उसे काम जारी रखने से भी नहीं रोक रहे, लेकिन इसके पीछे कहीं एक ऐसी मानसिकता उभरकर सामने आ रही है जो लड़कियों को हैरत में डाल रही है। असल में कुछ स्वार्थी लोग अब कमाऊ बहू को दहेज के 'ईएमआई' (इक्वेटेड मंथली इंस्टॉलमेंट) के रूप में भी देखने लगे हैं।
वे चाहते हैं कि बहू तो कमाऊ आए, लेकिन उसके पैसों पर उनका अधिकार हो। यहाँ तक कि वे उससे यही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी तनख्वाह हर महीने उनके (ससुराल वालों के) हाथ में रखे और अपने खर्चों को भी ससुराल वालों से पूछकर ही करे। साथ ही मायके वालों पर पैसा न खर्च करे।
पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी होती युवतियों की तादाद बढ़ रही है। वे हर उस क्षेत्र में अपनी दक्षता साबित कर रही हैं जहाँ पहले पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था। आर्थिक आत्मनिर्भरता बढ़ने से उनके इरादों में और भी विश्वास पैदा हुआ है, लेकिन जब ऐसी घटनाएँ सुनने को मिलती हैं तो लगता है कि समाज लड़कियों के लिए कहाँ बदला? वह तो अब भी उन्हें अधिकार जताने की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता।
पहले जब घर की आमदनी का स्रोत केवल पुरुषों के पास हुआ करता था, तब भी महिलाओं को खर्च करने के लिए उनकी अनुमति लेनी पड़ती थी और हर एक पैसा खर्च करने पर हिसाब देना पड़ता था। आज जब महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं तब भी हालात वही हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब ससुराल वाले उनकी आमदनी पर अधिकार जताने का प्रयास करने लगे हैं।
यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है कि पढ़ी-लिखी आर्थिक रूप से सक्षम लड़कियाँ भी ऐसे समय में अधिकांशतः माता-पिता की इज्जत तथा अन्य कई बेड़ियों के कारण चुपचाप ऐसे अतिक्रमण बर्दाश्त कर लेती हैं। यह आश्चर्यजनक है, लेकिन सच है। या फिर जब पानी सर से ऊपर हो जाता है तो फिर बात रिश्तों के टूटने तक आ जाती है।
मुद्दा यह कि लड़कियाँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बावजूद वैचारिक संकीर्णता के कारण टूट जाती हैं और यह संकीर्णता या स्वार्थी सोच उसे अपने मायके से जुड़ने की इजाजत भी नहीं देती और नए घर के लिए भी उसके मन में कड़वाहट घोल देती है। लड़कियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता तब ही सार्थक होगी जब इस तरह की बेड़ियाँ उसके पैरों से कट जाएँगी !......

Saturday, July 3, 2010

कभी कभी सोचता हूँ

कभी सोचता हूँ
कि मैं  कौन हो
कभी सोचता हूँ
कि इस दुनिया का फलसफा क्या है
कभी सोचता हूँ
कि तू कौन है
कभी सोचता हूँ
कि तुझसे मेरा रिश्ता क्या है
कभी सोचता हूँ
कि मोहोब्बत क्या है
कभी सोचता हूँ 
कि इन बातो में रखा क्या है
कभी सोचता हूँ 
कि मैं कौन हो ..............................?

Friday, July 2, 2010

मेरा मुकद्दर न जाने..........................?

मेरा मुकद्दर न जाने, यह क्या कर गया !
जो था कभी मेरा,किसी और का हो गया !!
खुशियों के आसूं दिए थे, किसी ने कभी !
आज उन्ही अस्को को, दर्दे ए गम दे गया !!
बफाई का वादा था, खुदा की कसम !
बेबफाई के दामन से, दगा कर गया !!
दाग चिलमन पर, न आये उनके कभी !
पागल बताकर, दीवाना कर गया !!
आज भी नफरत है, उनको मेरे नाम से 'असद'
खता उनसे से हुई ,सजा फिर भी मुझे दे गया !!